फांसी दो....
ये है बलात्कारी ,
ये अत्याचारी है ,
चारो तरफ बस यही हैं बाते ।
हाँ है वो बलात्कारी ,
है वो अत्याचारी भी ,
पर कोई ये क्यों ना पूछे ,
उसमे आई कहाँ से ये बिमारी ?
क्या उसका बाप था बलात्कारी ?
या उसका खानदान था अत्याचारी ।
नहीं था ,
फिर क्यों बना वो बलात्कारी ?
क्यों बना ये अत्याचारी ?
फिर किसने बनाया ,
उसे बलात्कारी ।
कैसे बना ,
वो अत्याचारी ?
" मैं वितरागी " नें बनाया ,
तूने बनाया , हमने बनाया ,
इस समाज ने बनाया ।
उसे अपनों का सम्मान तो सिखाया ,
दुसरो का हमेशा अपमान कराया ।
क्यों अपने पराये का भेद बताया ?
क्यों बताया ये मेरा ये तेरा ?
सब कहते....
फ़ासी दो ये बलात्कारी है ,
फ़ासी दो ये अत्याचारी है ,
कोई ये क्यों नही कहता ?
बलात्कार को फ़ासी दो ,
अत्याचार को फ़ासी दो ।
मैं वितरागी भी कहता ,
दो फांसी बलात्कारी को ,
पर " बलात्कार " को भी दो फांसी ।
दो फांसी अत्याचारी को ,
पर " अत्याचार " को भी दो फांसी ।
फ़ासी ही क्यों ?
खानदान मिटा दो ,
" बलात्कार " का ।
मटियामेट कर दो ,
" अत्याचार " को ।
लगाओ पता ,
क्यों बना वो बलात्कारी ?
क्यों बना अत्याचारी ?
क्यों करता है ?
किसी का बलात्कार ।
क्यों करता है ?
किसी पर अत्याचार ।।
फिर देखेंगे......
कहाँ से पैदा होंगे बलात्कारी ?
कहाँ से आयेंगे अत्याचारी ?
जब पता ही नहीं होगा ,
क्या होता है बलात्कार ?
क्या होता अत्याचार ,
फिर कैसे बनेंगे बलात्कारी ?
कैसे बनेंगे अत्याचारी ?
दो फांसी , जरुर दो फांसी ,
पर अकेले बलात्कारी को ही नहीं ,
बलात्कार को भी दो फांसी ।
अकेले अत्याचारी को ही नही ,
अत्याचार को भी दो फांसी ।।
// मैं वितरागी //*************
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