Tuesday, September 17, 2013

फांसी दो

फांसी दो....
ये है बलात्कारी ,
ये अत्याचारी है ,
चारो तरफ बस यही हैं बाते ।

हाँ है वो बलात्कारी ,
है  वो अत्याचारी भी ,
पर कोई ये क्यों ना पूछे ,
उसमे आई कहाँ से ये बिमारी ?

क्या उसका बाप था बलात्कारी ?
या उसका खानदान था अत्याचारी ।
नहीं था ,
फिर क्यों बना वो बलात्कारी ?
क्यों बना ये अत्याचारी ?

फिर किसने बनाया ,
उसे बलात्कारी ।
कैसे बना ,
वो अत्याचारी ?

" मैं वितरागी " नें बनाया ,
तूने बनाया , हमने बनाया ,
इस समाज ने बनाया ।

उसे अपनों का सम्मान तो सिखाया ,
दुसरो का हमेशा अपमान कराया ।
क्यों अपने पराये का भेद बताया ?
क्यों बताया ये मेरा ये तेरा ?

सब कहते....
फ़ासी दो ये बलात्कारी है ,
फ़ासी दो ये अत्याचारी है ,
कोई ये क्यों नही कहता ?
बलात्कार को फ़ासी दो ,
अत्याचार को फ़ासी दो ।

मैं वितरागी भी कहता ,
दो फांसी बलात्कारी को ,
पर " बलात्कार " को भी दो फांसी ।
दो फांसी अत्याचारी को ,
पर " अत्याचार " को भी दो फांसी ।

फ़ासी ही क्यों ?
खानदान मिटा दो ,
" बलात्कार " का ।
मटियामेट कर दो ,
" अत्याचार " को ।

लगाओ पता ,
क्यों बना वो बलात्कारी ?
क्यों बना अत्याचारी ?
क्यों करता है ?
किसी का बलात्कार ।
क्यों करता है ?
किसी पर अत्याचार ।।

फिर देखेंगे......
कहाँ से पैदा होंगे बलात्कारी ?
कहाँ से आयेंगे अत्याचारी ?

जब पता ही नहीं होगा ,
क्या होता है बलात्कार ?
क्या होता अत्याचार ,
फिर कैसे बनेंगे बलात्कारी ?
कैसे बनेंगे अत्याचारी ?

दो फांसी , जरुर दो फांसी ,
पर अकेले बलात्कारी को ही नहीं ,
बलात्कार को भी दो फांसी ।
अकेले अत्याचारी को ही नही ,
अत्याचार को भी दो फांसी ।।

// मैं वितरागी //*************

No comments:

Post a Comment