Tuesday, September 17, 2013

मैं-वितरागी

" मैं " बोला !  ए " वितरागी " ,
तू बाते करता बड़ी घणीं ,
" मैं " हूँ तेरा अपना धणी ,
मान ले मेरी भी थोड़ी घणीं ।

वितरागी बोला ! तू " मैं " मेरा धणी ,
बात लिखूँ इतनी घणीं ,
अमल भी कर ले थोड़ी घणीं ।

कहता तू ! हरदम " मैं " पर बात ,
लगती जैसे लगे दिल पर लात ,
क्या यही है मेरी औकात     ?

सुन ! मेरे " मैं "
गर " वितरागी " न लिखे बात ,
तो नही " मैं " तेरी औकात ।
तू मान मेरी बात ,
" वितरागी " से तेरी औकात ।।

सुन ! रे वितरागी ,
तू तो बड़ा अभागी ।
तेरी प्रीत मुझ संग जब से लागी ,
बन गया मैं अभागी ।।

नाम से ना कोई जानता ,
ना कोई मुझे पहचानता ।
तू हरदम अपना नाम लेता ,
मेरा तो बस " मैं " ही देता ।

सुन ! मेरे मैं ,
वितरागी नहीं आभागा ।
जब से तेरा " मैं " मुझसे लागा ,
लोग मानते मुझे घमंडी ,
यारो को समझता सब्जी मंडी ।

कहते लोग बोलने की नही तमीज ,
फाड़ते हो बातों की कमीज ।
कोई कहे मेरा नही सम्मान ,
तू कहे करता ! " मैं " का करूं अपमान ।

हाँ करता है ! खुदी का अपमान ,
तभी तो लोग कहें नहीं तेरा सम्मान ।
गर मैं लिखता तो देखता ,
कौन नही करता सम्मान ।।

ए " मैं " मेरा ,
तू है ! घमंड में चूर ,
तेरा नहीं कसूर ।
अब नहीं निभेगी ,
तेरी मेरी हजूर ।

सुन रे वितरागी !

" मैं " तो मैं हूँ ,
मैं ही काफी हूँ ,
तेरे जैसो को देता मैं टाफी हूँ ।

मुझे नही तेरी जरूरत ,
अच्छी मेरी शक्ल सूरत ।
आज से तेरे मेरे अलग रास्ते ,
नहीं लिखेंगे एक दूसरे के वास्ते ।

आज " मैं " भी लिखूंगा ,
दुनियाँ को भी दिखूंगा ।
तुझे दिखना तो दिख ,
" वितरागी " तो कभी से लिखता ,
पर दुनियाँ को कभी ना दिखेगा ।।
// मैं-वितरागी //***************

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