Wednesday, September 18, 2013

तेरा यौवन

चंचल-चपत , तेरा यौवन...,
मोर का नाँच , फीका लागे ।

वर्ण तेरा ,गोरा इतना...,
ताज , मुझको मैला लागे ।

जुल्फे तेरी , इतनी घनेरी...,
नभ में तारे भी कम लागे ।

नयन तेरे हैं मस्त नशीले...,
मय का नशा न मुझपर साजे ।

गालों पर तेरे इतनी लाली....,
भोर का सूरज , फीका लागे ।

होंठ तेरे हैं इतने रसीले....,
अमृत ना मुझको साजे ।

मस्त-मस्त गदराया यौवन...,
रति का योवन , फीका लागे ।

तेरी काया की क्या तारीफ़ करूं...?
" मैं वितरागी " के शब्द ना इससे आगे ।
// मैं वितरागी //*******************

Tuesday, September 17, 2013

// मेरी नई ठोर //

बिन सोचे समझे निकल पड़ा ,
एक अनजान डगर की ओर ।
नहीं कोई मंजिल मेरी ,
नही था कोई ठोर.....।।

चलते चलते पहुँचा जहाँ ,
वहाँ दिशाएँ चारों ओर ।
मंजिल मुझे मिली नहीं ,
नहीं धरा पे कोर....... ।।

न मिली मंजिल धरा पे ,
तो निकला चाँद की ओर ।
मैं वितरागी तो मिला नहीं ,
मिले कई जीव और ।
कहने लगे आया कहाँ से ,
कहाँ है तेरी ठोर ।
कहने लगा मैं धरा से ,
ढूंढता एक घर मैं और......।।

कहने लगे ये घर हमारा ,
तू ढूंढ़ अपना कहीं ओर ।
न है यहाँ कोई साथी तेरा ,
न नाचते यहाँ मोर..... ।।

न मिली मंजिल चाँद पर ,
निकला अनजान डगर की ओर ।
नहीं थी कोई मंजिल मेरी ,
ढूंढ़ रहा मैं ठोर........ ।।

चलते चलते दिखा एक ,
नाँच रहा जैसे मोर ।
पहुँचा जब देखा वहाँ ,
" मैं वितरागी "नहीं था कोई और ।।

बोला मैं वितरागी से ,
धरा सा दिखता चारों ओर ।
कब आया तू यहाँ ,
क्या ये है तेरी मेरी ठोर ?

बोला " मैं वितरागी "
चलता नहीं यहाँ धरा सा जोर ।
ये है मंगल ग्रह ,
आज से तेरी मेरी ठोर........ ।।

बनाएंगे यहाँ अपना घर ,
बुलाएंगे धरा से जन और ।
चलते चलते पहुँच गया ,
" मैं वितरागी " मंगल की ओर ।।

जंगल नहीं पर ,
मंगल है चारों ओर ।
अब धरा नहीं ,
मंगल ही नई मेरी तेरी ठोर.... ।।
// मैं वितरागी //**************

मेरे दोस्त

" मैं वितरागी " लिखता जाऊं ,
दोस्तों से आज राग बनाऊं ।

कंचन-कोमल सी रचना बनाऊं ,
अपना छोटा सा नसीब दिखाऊं ।

यशी सी मैं दहाड़ बनाऊं ,
संजय को मैं राजेस दिखाऊं ।

सलिम के स्वेत सा ताज बनाऊं ,
विजय के बड़े हैं राज दिखाऊं ।

रवि की किरन मैं बनाऊं ,
भारती का नरेश कहलाऊं ।

अमरनाथ पे ज्योती जलाऊं ,
अलबेला तरकश मैं पाऊं ।

सागर को सीमा दिखाऊं ,
महेश से आरती कराऊं ।

फोज छोटी पर विजय दिखाऊं ,
गोविन्द से वृन्दा - वन में मधु ! राग लिखाऊं ।

नीरज शशी हरदम दिखाऊं ,
रम्भा से आनन्द राग लिखाऊं ।

मंझरी को पायल पहनाऊ ,
भारती के अंगारो पर नाच दिखाऊं ।

राजपूत को गिरिराज बनाऊं ,
चहल कदमी पे सोना पाऊं ।

कामा का विवेक दिखाऊं ,
दुबे से स्नेह अंकित कराऊं ।

राकेश सुधीर को मैं समझाऊँ ,
कलीम सा उन्हें गौरव दिलाऊं ।

" मैं वितरागी " लिखता जाऊं ,
दोस्तों से आज राग बनाऊं ,
अनुराधा से जाकर छपवाऊं ।
// मैं वितरागी //**************

गरीबी हटाओ

गरीबी हटाओ.....
गरीबी हटाओ.....

सुना मैने...... ,
हम गरीबी हटाएंगे ।
खाने को मुफ्त बाटेंगे ,
रहने को प्लाट काटेंगे ।।

फिर मैं वितरागी ,
क्यों करूं काम ?
जब मुफ्त की रोटी ,
खाने को मिले ।
क्यों न करूं आराम ?
जब मुफ्त में छत ,
सोने को मिले ।।

मुफ्त की आदत ,
होती बड़ी खराब ।
रोटी मिलेगी गर मुफ्त में ,
तो पीने को चाहिए शराब ।।

मुफ्त की आदत से ,
आफत और बढ़ेगी ।
गरीब मिटेगा ,
पर गरीबी नही हटेगी ।।

न मैं भिखारी ,
न मैं फकीर ,
क्यों लूँ मुफ्त का खाना ?
क्यों लूँ मुफ्त का बिछौना ?

गर मरूँगा भूखा ,
तो मेहनत से करूँगा काम ।
चाहे मिले कम दाम ,
फिर भी न करूं आराम ।।

मैं वीतरागी करूं अर्जी ,
हटानी गर गरीबी ,
करने को दो मुझे काम ,
सच्चे भी दो मुझे दाम ।।

ए भले इंसान ,
करने दे मुझे काम ।
इज्जत की सुखी रोटी खाने दे ,
सपनों की मीठी नींद सोने दे ।।

गर हटानी गरीबी ,
तो मुझे शिक्षण दे ।
काम का मुझे ,
तू प्रशिक्षण दे ।।
// मैं वितरागी //*************

राग व्यंजन

क - कविता बनाऊं ,
ख - ख़्वाब हकीकत दोनों सजाऊं ।
ग - गम में ख़ुशी में हरपल ,
घ - घनी पर सीधी साधी बात लिखूँ ।
ड़ -

च - चाँद की सूरज की ,
छ - छम छम बारिश की बात लिखू ।
ज - जग की सारी बात ,
झ - झंडा सा तन के दिन रात लिखूँ ।
ञ -

ट - टपटप सावन सी ,
ठ - ठंडी सर्दी की ,
ड - डूबते सूरज सी ,
ढ - ढलते चाँद की बात लिखूँ ।
ण -

त - तलवार की धार सी ,
थ - थकता नहीं हरबार लिखूँ
द - दिन रात हरपल ,
ध - धनुष के वार सी ,
न - नमक मिर्च बिन बात लिखूँ ।

प - परवाह बिन बात लिखूँ ,
फ - फल बिन दिन रात लिखूँ ,
ब - बात अपनी बिन औकात लिखूँ ।
भ - भरता नही मन बिन लिखे ,
म - " मैं वितरागी " मरने तक बात लिखूँ ।

य - यश नहीं जानता ,
र - राशि भी नहीं मांगता ,
ल - लक्ष्य दिख जाए कोई ,
व - वहीं बैठ मैं बात लिखूँ ।

श - शीश कटा सकता हूँ ,
स - सर झुका के न बात लिखूँ ।
ष - षड्यंत्र करूं न कोई ,
ह - हर पल अपनी औकात लिखूँ ।।

क्ष - क्षमा मांगता गलती की ,
त्र - त्रिशूल सी गर बात चुभे ,
ज्ञ - ज्ञान नहीं है बातो का ,
श्र - श्री को ध्यान में रख कर बात लिखूँ ।।
// मैं वितरागी //

स्वर संग ब्याह

आज मैं हिंदी सिखाऊं ,
स्वर सा ! तुझ संग ब्याह रचाऊ ।

अ से ! अपना तुझे बना लूँ ,
आ सा ! आस मिलन की लगाऊं ।

इ सा ! तुझ संग इश्क लडाऊं ,
ई सी ! बीबी तुझे बनाऊं ।

उ सा ! उम्र भर साथ निभाएं ,
ऊ सी ! अपनी ऊँची शान करें ।

ए से ! फेरे लेकर हम ,
ऐ से ! मै तू एक हो जाए ।

ओ सा ! ओर किसी को न निहारूं ,
औ से ! औरत हो या बाला ।

अं से ! अपना अंश बनाये ,
ँ सा ! चाँद पे घर बनाए ,

ऋ सी ! कृपा हो रब की  ,
--- सी ! आजा तेरी माँग भरूँ ।

स्वर-व्यंजन सा ! साथ निभाऊं ,
जी करता है लिखता जाऊं ।

छंद दोहे से ! गहने पहनाकर ,
कविता सी ! तुझे सजाऊं ।

गीत संगीत से ! हम मिल जाएँ ,
कहानीं सा ! जीवन बिताएँ ।

आज मैं हिंदी सिखाऊं ,
स्वर सा ! तुझ संग ब्याह रचाऊँ ।
// मैं वितरागी //*****************

मेरी हिंदी

मेरी हिंदी ,
प्यारी हिंदी ,
सारे जग से न्यारी हिंदी ।

चाहे लगानी आये ना बिंदी ,
चाहे कहे कोई, चोर चिंदी ।

फिर भी हरपल लिखूँ ,
मेरी हिंदी ,
तेरी हिंदी ।

पर भाषा ना मैं बोलूं ,
किसी के आगे-पीछे ना डोलूँ ।

बार बार मेरे लब बोलें ,
मेरी हिंदी ,
प्यारी हिंदी ।

मात्राओं का ज्ञान नहीं ,
मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं ।

बोलूँ वहीं , मै जाऊँ कहीं ,
मेरी हिंदी ,
न्यारी हिंदी ।

गद्य-पद्य मैं ना जानूं ,
किसी कवि को ना पहचानूं ।

इसको ही बस अपना मानूँ ,
मेरी हिंदी ,
कैसी हिंदी ।

छंद-दोहे का भेद नहीं ,
मुझे लिखने पर खेद नहीं ।

जाऊँ कहीं " मैं वितरागी " गाऊँ वहीँ ,
मेरी हिंदी ,
ऐसी हिंदी ।

सारे जग से न्यारी हिंदी ,
मेरी हिंदी तेरी हिंदी  '
सबसे ऊपर मेरी हिंदी ।
// मैं वितरागी //****************

फांसी दो

फांसी दो....
ये है बलात्कारी ,
ये अत्याचारी है ,
चारो तरफ बस यही हैं बाते ।

हाँ है वो बलात्कारी ,
है  वो अत्याचारी भी ,
पर कोई ये क्यों ना पूछे ,
उसमे आई कहाँ से ये बिमारी ?

क्या उसका बाप था बलात्कारी ?
या उसका खानदान था अत्याचारी ।
नहीं था ,
फिर क्यों बना वो बलात्कारी ?
क्यों बना ये अत्याचारी ?

फिर किसने बनाया ,
उसे बलात्कारी ।
कैसे बना ,
वो अत्याचारी ?

" मैं वितरागी " नें बनाया ,
तूने बनाया , हमने बनाया ,
इस समाज ने बनाया ।

उसे अपनों का सम्मान तो सिखाया ,
दुसरो का हमेशा अपमान कराया ।
क्यों अपने पराये का भेद बताया ?
क्यों बताया ये मेरा ये तेरा ?

सब कहते....
फ़ासी दो ये बलात्कारी है ,
फ़ासी दो ये अत्याचारी है ,
कोई ये क्यों नही कहता ?
बलात्कार को फ़ासी दो ,
अत्याचार को फ़ासी दो ।

मैं वितरागी भी कहता ,
दो फांसी बलात्कारी को ,
पर " बलात्कार " को भी दो फांसी ।
दो फांसी अत्याचारी को ,
पर " अत्याचार " को भी दो फांसी ।

फ़ासी ही क्यों ?
खानदान मिटा दो ,
" बलात्कार " का ।
मटियामेट कर दो ,
" अत्याचार " को ।

लगाओ पता ,
क्यों बना वो बलात्कारी ?
क्यों बना अत्याचारी ?
क्यों करता है ?
किसी का बलात्कार ।
क्यों करता है ?
किसी पर अत्याचार ।।

फिर देखेंगे......
कहाँ से पैदा होंगे बलात्कारी ?
कहाँ से आयेंगे अत्याचारी ?

जब पता ही नहीं होगा ,
क्या होता है बलात्कार ?
क्या होता अत्याचार ,
फिर कैसे बनेंगे बलात्कारी ?
कैसे बनेंगे अत्याचारी ?

दो फांसी , जरुर दो फांसी ,
पर अकेले बलात्कारी को ही नहीं ,
बलात्कार को भी दो फांसी ।
अकेले अत्याचारी को ही नही ,
अत्याचार को भी दो फांसी ।।

// मैं वितरागी //*************

मैं-वितरागी

" मैं " बोला !  ए " वितरागी " ,
तू बाते करता बड़ी घणीं ,
" मैं " हूँ तेरा अपना धणी ,
मान ले मेरी भी थोड़ी घणीं ।

वितरागी बोला ! तू " मैं " मेरा धणी ,
बात लिखूँ इतनी घणीं ,
अमल भी कर ले थोड़ी घणीं ।

कहता तू ! हरदम " मैं " पर बात ,
लगती जैसे लगे दिल पर लात ,
क्या यही है मेरी औकात     ?

सुन ! मेरे " मैं "
गर " वितरागी " न लिखे बात ,
तो नही " मैं " तेरी औकात ।
तू मान मेरी बात ,
" वितरागी " से तेरी औकात ।।

सुन ! रे वितरागी ,
तू तो बड़ा अभागी ।
तेरी प्रीत मुझ संग जब से लागी ,
बन गया मैं अभागी ।।

नाम से ना कोई जानता ,
ना कोई मुझे पहचानता ।
तू हरदम अपना नाम लेता ,
मेरा तो बस " मैं " ही देता ।

सुन ! मेरे मैं ,
वितरागी नहीं आभागा ।
जब से तेरा " मैं " मुझसे लागा ,
लोग मानते मुझे घमंडी ,
यारो को समझता सब्जी मंडी ।

कहते लोग बोलने की नही तमीज ,
फाड़ते हो बातों की कमीज ।
कोई कहे मेरा नही सम्मान ,
तू कहे करता ! " मैं " का करूं अपमान ।

हाँ करता है ! खुदी का अपमान ,
तभी तो लोग कहें नहीं तेरा सम्मान ।
गर मैं लिखता तो देखता ,
कौन नही करता सम्मान ।।

ए " मैं " मेरा ,
तू है ! घमंड में चूर ,
तेरा नहीं कसूर ।
अब नहीं निभेगी ,
तेरी मेरी हजूर ।

सुन रे वितरागी !

" मैं " तो मैं हूँ ,
मैं ही काफी हूँ ,
तेरे जैसो को देता मैं टाफी हूँ ।

मुझे नही तेरी जरूरत ,
अच्छी मेरी शक्ल सूरत ।
आज से तेरे मेरे अलग रास्ते ,
नहीं लिखेंगे एक दूसरे के वास्ते ।

आज " मैं " भी लिखूंगा ,
दुनियाँ को भी दिखूंगा ।
तुझे दिखना तो दिख ,
" वितरागी " तो कभी से लिखता ,
पर दुनियाँ को कभी ना दिखेगा ।।
// मैं-वितरागी //***************

Wednesday, September 11, 2013

मेरा धर्म

कौन हूँ ............?
हिन्दू हूँ ...........?
मुस्लिम हूँ ........?
सिख हूँ ...........?
या फिर इसाई हूँ ?

बताएगा कोई ,
जब पैदा हुआ क्या था , मेरा धर्म ?

मौलवी आया......
बोला इसका खतना करो ,
ये मुस्लमान बन जाएगा ।

पंडित आया......
बोला इसे जनेऊ पहनाओ ,
ये हिन्दू बन जाएगा ।

ग्रन्थि आया......
बोला इसे कृपाण थमाओ ,
ये सिख बन जाएगा ।

फादर आया......
बोला इसे क्रास पहनाओ ,
ये इसाई बन जाएगा ।

मैने सबकी सुनी बाते ,
लगी अँधेरी सी रातें ।
बोला क्यों मेरे पीछे पड़े ?
क्यों तुम आपस में लड़े ।
सब धर्म एक समान ,
मैं तो हूँ ! बस इंसान ।।

वो ना माने......
मौलवी बोला , मेरा खुदा महान ।
पंडित बोला , मेरा राम महान ।
ग्रन्थि बोला , मेरा वाहे गुरु महान ।
इसाई बोला , मेरा ईसा महान ।
सबने किये गुणगान ,
बताया अपनों को महान ।।

नही किया इंसान का गुणगान ,
बताया नहीं इंसानियत को महान ।
फिर क्यों मैं ! धर्म ऐसा लूँ मान ?
जिसमें इंसानियत नही महान ।
मानू मैं ! धर्म अपना उसे......
जिसमे " मैं वीतरागी " सिर्फ इंसान ।।

कोई ना बोला.......
सबने उठाया अपना झोला ,
बोले ये तो है तुच्छ नीच इंसान ।
इसने किया हमारा अपमान ,
इसका नहीं हमारे धर्म में काम ।

निकल पड़े सब.....
किसी ओर को तलाशने ,
आये थे जो मुझे बहलाने ।

मैं वीतरागी उनमे चक्कर में न आया ,
इंसानियत को अपना धर्म बनाया ।

अब बारी तेरी.....
वो आयेंगे तेरे पास भी ,
अब तुझ पर है , तू किसे अपनाता है ।
हिन्दू को , मुस्लिम को ,
सिख को , इसाई को ,
या " मैं वीतरागी " के " इंसानियत " को ।।

करूं मैं गुहार ! हे इंसान.....
मान तू ! अपने धर्म को भी महान ।
पर मत कर अपना अपमान...
" इंसानियत " सब धर्मों से है महान ।।
// मैं वितरागी // ***********************

करो मेरा अपमान

कहता कोई.....
मैं घमंडी......
कोई कहता.....
मुझे तमीज नहीं ।

मानता " मैं वितरागी " नहीं महान ,
चाहूँ अपना थोडा सा अपमान ,
क्यों डरते हो करो मेरा अपमान ?

" दो जून रोटी कमाने वाले गरीब " का करते हो ,
मैं भी तन का गरीब ।
मेरा भी करो अपमान ।।

" इबादतखाने पड़े कोढ़ी " का करते हो ,
मैं भी मन का कोढ़ी ।
मेरा भी करो अपमान ।।

" दर पे आये फकीर " का करते हो ,
मैं भी दिल का फकीर ।
मेरा भी करो अपमान ।।

" बूढ़े माँ बाप " का करते हो ,
मैं नहीं रहूँगा जवान ।
मेरा भी करो अपमान ।।

मुझे बोलने की तमीज नहीं ,
हूँ भी बड़ा घमंडी ,
चोरों की तरह लिखता हूँ ।
गुण मुझे खुदी में दिखे ना कोई ,
फिर क्यों नहीं ,
मेरा अपमान करता कोई ?

क्यों डरते हो ?

" मैं वितरागी " नहीं धनवान ,
नही हूँ ! मैं बलवान ,
नही मेरा ! कोई भगवान ,
नही हूँ ! मैं महान ।
हूँ एक ! तुच्छ सा इंसान ,
क्यों नहीं करता मेरा अपमान ।।

कर मेरा अपमान ।
पर कर सम्मान ,
उस " दो जून रोटी कमाने वाले गरीब " का ,
उस " इबादतखाने पर पड़े कोढ़ी " का ,
उस " दर पर आये उस फकीर " का ,
उस " बूढ़े माँ बाप " का ।
वों हैं काबिल तेरे सम्मान के ,
फिर क्यों नहीं करता उनका सम्मान ?

गर नहीं कर सकता उनका सम्मान ,
तो कर " मैं वितरागी " का अपमान ।
// मैं वितरागी //*****************

Tuesday, September 10, 2013

धर्म के ठेकेदार

दंगा किसने भडकाया -
धर्म के ठेकेदारों ने ,
भगदड़ किसने मचवाई -
धर्म के ठेदारों ने ,
गोली किसने चलवाई -
धर्म के ठेकेदारों ने ,
नारी पर जुल्म किसने करवाया -
धर्म के ठेकेदारों ने ,
कोई भी गलत काम हो , नाम आता -
धर्म के ठेकेदारों ने ।

कौन हैं ?
वो साले..... धर्म के ठेकेदार ,
बताओ मुझे...
मैं करता हूँ उसका बंटा धार ।

बोलते क्यों नहीं ?
बताओ मुझे नाम उनके ,
तुम क्या बोलोगे ?
मैं बताता हूँ नाम उनके ।

मैं वितरागी हूँ...
जो ना दीखता ,
धर्म का ठेकेदार ।
तू है.....
जो हरपल लिखता ,
धर्म का ठेकेदार ।
ये भी है....
जो पढ़ता ,
धर्म का ठेकेदार ।
वो भी है.....
जो न लिखता न पढ़ता ,
धर्म का ठेकेदार ।।

अब क्या हुआ तुझे ?
गाली भी दे रहा होगा मुझे ,
क्यों बोलती बंद हुई ?

कौन सा धर्म.....?
किसने बनाया धर्म.....?
किसने बनाये धर्म के ठेकेदार...?

आदत है मेरी / तेरी / हमारी.....
दूसरो पर उंगली उठाने की ,
पर चार तो रहती तरफ हमारी ।
फिर क्यों हम....?
एक की मानता जो नही हमारी ,
ताकती रहती बाते बेगानी ।।

नाम तो मैने बता दिए ,
मैं हूँ धर्म का ठेकेदार....
तू है धर्म का ठेकेदार.....
हम सब हैं धर्म के ठेकेदार...।
फिर करता क्यों नही अब कुछ ?
कोई दूसरा होता तो जरुर करता तू ।।

सम्भल जा ए इंसान....
क्यों करता किसी को बदनाम ?
क्यों करता गलत काम ?
धर्म के ठेकेदार है हमारा ही नाम ?
क्यों किसी पर उंगली उठाता बेकार ?
क्यों दुसरो की जिन्दगी करता बेसार ?
// मैं वितरागी //*******************

Monday, September 9, 2013

कहो न अबला न बेचारी

कहो न अबला न बेचारी
*************************
मैं बेटी बनी ,
खुश हुआ ,
ख़ुशी दी तेरे आंगन को ।

मैं प्रेमिका बनी ,
खुश हुआ ,
जान दी तेरे अरमानो को ।

मैं पत्नी बनी ,
खुश हुआ ,
शान दी तेरे जीवन को ।

मैं माँ बनी ,
खुश हुआ ,
मान दिया तेरे खानदान को ।

फिर क्यों....
कोख में माँ की...
मैं दफना दी जाती हूँ ?

फिर क्यों.....
प्यार के नाम ...
मैं लूटी ख्सोटी जाती हूँ ?

फिर क्यों....
घर में तेरे...
मैं जलाई जाती हूँ ?

फिर क्यों.....
संसार में तेरे....
मैं बहू मानी जाती हूँ ?

क्या खता है मेरी ?
मैं बेटी बनी ,
प्रेमिका बनी ,
पत्नी बनी ,
या माँ बनी ,
बता ये सब मैं किसके लिए बनी ?

मुझसे तेरे आंगन में किलकारी गूंजी ,
तेरे बंजर दिल में फूल खिले ,
तेरे जीवन में खुशियाँ आई ,
मेरा ही दूध पीकर तू बड़ा हुआ ।

आज मुझको ही तू अबला कहता ,
साथ में कहता बेचारी ।

मैं नही अबला ,
न मैं बेचारी ।

मैं बेटी हूँ तेरी ,
हूँ प्रेमिका तेरी ,
मैं पत्नी हूँ तेरी ,
हूँ माँ तेरी ,
क्या यही खता है मेरी ?

सुन अए नादा-----
गर मैं नहीं ! तो सृष्टि नहीं ,
तुझ पर ! किसी की दृष्टि नहीं ।
मानती हूँ ! नहीं बिन तेरे भी सृष्टि ,
रही सदा तुझ पर ! मेरी दृष्टि ।
पर मैं ! नहीं कहती तुझे बेचारा ,
तूने ही हरदम मुझ पर ताना मारा ।।

मेरे बिन---
कौन बनेगी तेरी बेटी....?
कौन बनेगी प्रेयसी..... ?
किसे कहेगा तू पत्नी.... ?
किसे कहेगा माँ..........?

हे नारी ! मैं करूं दुहाई
माफ़ करो मुझे-----

"मैं वीतरागी" जान गया ,
शक्ति तेरी पहचान गया ।
तू "मेरी बेटी".....,
"प्रेमिका है" तू मेरी..... ,
तू ही "मेरी पत्नी"......,
मेरी है "हे माँ".....।
इनके अलावा और भतेरे ,
बहुत रिश्ते हैं तेरे मेरे ।।

नहीं कहूँगा तुम्हे बेचारी ,
नहीं है तू अबला नारी ।
तू तो है महान ,
मनुष्य जाति की......
हो ! शान
आन , हो
हो ! मान
तेरे बिन अधूरे ! जग के सारे अरमान....।।
// मै वीतरागी // ***********************
**************************************

कलम उठाई


कलम उठाई ,
दवात उठाई ,
है हिम्मत......
बिन औकात उठाई ।

अपनी हो.....
या बात पराई ,
बुरे काम की.....
करूं बुराई ।

लिखता हरदम.....
मैं सच्चाई ,
चाहे करे कोई....
जग हँसाई ।

अपनी न....
कोई बात छुपाई ,
खोल के रखा....
दिल हरजाई ।

खोट किसी का....
खुदी बताई ,
की नही...
कभी बेवफाई ।

"मैं वीतरागी"......
खुदी लिखाई ,
नही किसी से....
मेरी लड़ाई ।

लिखता पर...
सूरत न दिखाई ,
दीखता पर....
पहचान न बताई ।

हरपल सोचूँ....
करूं लिखाई ,
नही चाहिए....
मुझे बड़ाई ।

कलम उठाई ,
दवात उठाई ,
है हिम्मत.....
बिन औकात उठाई ।

बिन तेरे


तू नही , पर मैं अकेला ।
बिन तेरे , खुदी से खेला ।।

संगदिल नहीं , पर तन्हा अकेला ।
बिन तेरे , तन्हाई से खेला ।।

शब्द नही , पर भावों का मेला ।
बिन तेरे , भावों से खेला ।।

ख़ुशी नही , पर गमों का रेला ।
बिन तेरे , गमों से खेला ।।

तन नही , पर मन अकेला ।
बिन तेरे , मन कहीं न खेला ।।

मैं नही , पर दिल अकेला ।
बिन तेरे ," मैं वीतरागी " संग खेला ।।