बिन सोचे समझे निकल पड़ा ,
एक अनजान डगर की ओर ।
नहीं कोई मंजिल मेरी ,
नही था कोई ठोर.....।।
चलते चलते पहुँचा जहाँ ,
वहाँ दिशाएँ चारों ओर ।
मंजिल मुझे मिली नहीं ,
नहीं धरा पे कोर....... ।।
न मिली मंजिल धरा पे ,
तो निकला चाँद की ओर ।
मैं वितरागी तो मिला नहीं ,
मिले कई जीव और ।
कहने लगे आया कहाँ से ,
कहाँ है तेरी ठोर ।
कहने लगा मैं धरा से ,
ढूंढता एक घर मैं और......।।
कहने लगे ये घर हमारा ,
तू ढूंढ़ अपना कहीं ओर ।
न है यहाँ कोई साथी तेरा ,
न नाचते यहाँ मोर..... ।।
न मिली मंजिल चाँद पर ,
निकला अनजान डगर की ओर ।
नहीं थी कोई मंजिल मेरी ,
ढूंढ़ रहा मैं ठोर........ ।।
चलते चलते दिखा एक ,
नाँच रहा जैसे मोर ।
पहुँचा जब देखा वहाँ ,
" मैं वितरागी "नहीं था कोई और ।।
बोला मैं वितरागी से ,
धरा सा दिखता चारों ओर ।
कब आया तू यहाँ ,
क्या ये है तेरी मेरी ठोर ?
बोला " मैं वितरागी "
चलता नहीं यहाँ धरा सा जोर ।
ये है मंगल ग्रह ,
आज से तेरी मेरी ठोर........ ।।
बनाएंगे यहाँ अपना घर ,
बुलाएंगे धरा से जन और ।
चलते चलते पहुँच गया ,
" मैं वितरागी " मंगल की ओर ।।
जंगल नहीं पर ,
मंगल है चारों ओर ।
अब धरा नहीं ,
मंगल ही नई मेरी तेरी ठोर.... ।।
// मैं वितरागी //**************
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